Satsang Diksha - Grammar


This is my humble effort to analyze all SLOKA of Satsang Diksha. There are two sections in this article. (1) Most common words. It lists out all slokas that have the specific word. Please refer my blog: Satsang Diksha (2) Sanskrit Grammar aspects. It lists out usage of सति सप्तमी , शतृ प्रत्यय , द्वि वचन, णिच प्रत्यय, क्त्वा  प्रत्यय, ल्यप प्रत्यय, तुमुन् प्रत्यय etc. 

This article may help to people who wish to byheart the complete Satsang Diksha. 

Jai Swaminarayan!

Grammar Aspects


There are many usage of VIDHI LING : PRATHAM PURUSH EK VACHAN, VIDHI LING : PRATHAM PURUSH BAHU VACHAN, TAVYAT PRATYAY, ANIYAR PRATYAY. These usages are not listed. 

1. सति सप्तमी

यागादिके च कर्तव्ये सिद्धान्तं सांप्रदायिकम्।
अनुसृत्य हि कर्तव्यं हिंसारहितमेव तत्॥ ३६॥
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मनसा वचसा वाऽपि कर्मणा हिंसने कृते
तत्स्थितो दुःख्यते नूनं स्वामिनारायणो हरिः॥ ४०॥
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भोज्यं नैव न पेयं वा विना पूजां जलादिकम्।
प्रवासगमने चाऽपि पूजां नैव परि त्यजेत्॥ ७६॥
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अन्याऽवगुणदोषादिवार्तां कदाऽपि नोच्चरेत्।
तथाकृते त्वशान्तिः स्याद् अप्रीतिश्च हरेर्गुरोः॥ १६५॥
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अत्यन्ताऽऽवश्यके नूनं परिशुद्धेन भावतः।
सत्यप्रोक्तौ न दोषः स्याद् अधिकारवतां पुरः॥ १६६॥
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प्रसङ्गे व्यवहारस्य सम्बन्धिभिरपि स्वकैः।
लेखादिनियमाः पाल्याः सकलैराश्रितैर्जनैः॥ १९०॥
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विद्याधनादिकं प्राप्तुं देशान्तरं गतेऽपि च।
सत्सङ्गमादरात् तत्र कुर्यान्नियमपालनम्॥ २०५॥
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संजाते देशकालादेर्वैपरीत्ये तु धैर्यतः।
अन्तर्भजेत सानन्दम् अक्षरपुरुषोत्तमम्॥ २०७॥
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आपत्काले तु सम्प्राप्ते स्वीयवासस्थले तदा।
तं देशं हि परित्यज्य स्थेयं देशान्तरे सुखम्॥ २०८॥
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नियतोद्यमकर्तव्ये नाऽऽलस्यम् आप्नुयात् क्वचित्।
श्रद्धां प्रीतिं हरौ कुर्यात् पूजां सत्सङ्गमन्वहम्॥ २१५॥
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मारुतिम् आश्विने कृष्ण-चतुर्दश्यां हि पूजयेत्।
मार्गे मन्दिरसंप्राप्तौ तद्देवं प्रणमेद् हृदा॥ २५०॥
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प्रायश्चित्तमनुष्ठेयं जाते त्वयोग्यवर्तने
परमात्मप्रसादार्थं शुद्धेन भावतस्तदा॥ २६८॥
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आपत्तौ प्राणनाशिन्यां प्राप्तायां तु विवेकिना।
गुर्वादेशाऽनुसारेण प्राणान् रक्षेत् सुखं वसेत्॥ २७१॥
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कालो वा कर्म वा माया प्रभवेन्नैव कर्हिचित्।
अनिष्टकरणे नूनं सत्सङ्गाऽऽश्रयशालिनाम्॥ २७७॥

2. शतृ प्रत्यय

विज्ञातव्यमिदं सत्यं सत्सङ्गस्य हि लक्षणम्।
कुर्वन्नेवंविधं दिव्यं सत्सङ्गं स्यात् सुखी जनः॥ ९॥
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पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा दिशि कृत्वा मुखं ततः।
शुद्धाऽऽसनोपविष्टः सन् नित्यपूजां समाचरेत्॥ ५२॥
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उरसि हस्तयोश्चन्द्रं तिलकं चन्दनेन च।
स्वामिनारायणं मन्त्रं जपन् कुर्याद् गुरुं स्मरन्॥ ५४॥
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केवलं चन्द्रकः स्त्रीभिः कर्तव्यस्तिलकं नहि।
कुङ्कुमद्रव्यतो भाले स्मरन्तीभिर्हरिं गुरुम्॥ ५५॥
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ततः पूजाऽधिकाराय भक्तः सत्सङ्गमाश्रितः।
कुर्यादात्मविचारं च प्रतापं चिन्तयन् हरेः॥ ५६॥
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मालामावर्त येद् मन्त्रं स्वामिनारायणं जपन्
महिम्ना दर्शनं कुर्वन् मूर् तीनां स्थिरचेतसा॥ ६६॥
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एकपादोत्थितो भूत्वा मालाम् आवर्तयेत् ततः।
तपस ऊर्ध्वहस्तः सन् कुर्वाणो मूर्तिदर्शनम्॥ ६७॥
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ततः संचिन्तयन् कुर्याद् अक्षरपुरुषोत्तमम्।
व्यापकं सर्वकेन्द्रं च प्रतिमानां प्रदक्षिणाः॥ ६८॥
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दिव्यभावेन भक्त्या च तदनु प्रार्थयेज्जपन्
स्वामिनारायणं मन्त्रं शुभसङ्कल्पपूर्तये॥ ७१॥
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ब्रह्माऽक्षरगुरुद्वारा भगवान् प्रकटः सदा।
सहितः सकलैश्वर्यैः परमाऽऽनन्दमर्पयन्॥ १०७॥
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सिद्धान्तं परमं दिव्यम् एतादृशं विचिन्तयन्
सत्सङ्गं निष्ठया कुर्याद् आनन्दोत्साहपूर्वकम्॥ ११५॥
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कुर्याद्धि भजनं कुर्वन् क्रिया आज्ञाऽनुसारतः।
क्रियाबन्धः क्रियाभारः क्रियामानस्ततो नहि॥ १२४॥

3. द्वि वचन 

उरसि हस्तयोश्चन्द्रं तिलकं चन्दनेन च।
स्वामिनारायणं मन्त्रं जपन् कुर्याद् गुरुं स्मरन्॥ ५४॥
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हरिर्ब्रह्मगुरुश्चैव भवतो मोक्षदायकौ
तयोरेव हि कर्तव्यं ध्यानं मानसपूजनम्॥ ५९॥
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मध्ये तु स्थापयेत्तत्र ह्यक्षरपुरुषोत्तमौ
स्वामिनं हि गुणातीतं महाराजं च तत्परम्॥ ६१॥
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आह्वानश्लोकमुच्चार्य हरिं च गुरुमाह्वयेत्।
हस्तौ बद्ध्वा नमस्कारं कुर्याद्धि दासभावतः॥ ६३॥
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प्रस्थाप्यौ विधिवत् तस्मिन्नक्षरपुरुषोत्तमौ
गुरवश्च गुणातीता भक्त्या परम्परागताः॥ ८०॥
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तेषु मायापरौ नित्यम् अक्षरपुरुषोत्तमौ
जीवानामीश्वराणां च मुक्तिस्तद्योगतो भवेत्॥ १०४॥
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अहो इहैव नः प्राप्तावक्षरपुरुषोत्तमौ
तत्प्राप्तिगौरवान्नित्यं सत्सङ्गानन्दमाप्नुयात्॥ १२८॥
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दृश्यो न मानुषो भावो भगवति तथा गुरौ।
मायापरौ यतो दिव्यावक्षरपुरुषोत्तमौ॥ १३१॥
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वार्ता कार्या महिम्नो हि ब्रह्मपरमब्रह्मणोः
तत्सम्बन्धवतां चाऽपि सस्नेहमादरात् सदा॥ १३९॥
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स्वधर्मं पालयेन्नित्यं परधर्मं परित्यजेत्।
स्वधर्मो भगवद्गुर्वोराज्ञायाः परिपालनम्॥ १५६॥
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धनद्रव्यधरादीनां सदाऽऽदानप्रदानयोः
नियमा लेखसाक्ष्यादेः पालनीया अवश्यतः॥ १८९॥
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धनद्रव्यधरादीनां प्रदानाऽऽदानयोः पुनः।
विश्वासहननं नैव कार्यं न कपटं तथा॥ १९८॥
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बाल्यादेव हि सत्सङ्गं कुर्याद् भक्तिं च प्रार्थनाम्।
कार्या प्रतिदि नं पूजा पित्रोः पञ्चाङ्गवन्द ना॥ २१२॥
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स्वसंप्रदायग्रन्थानां यथाशक्ति यथारुचि।
संस्कृते प्राकृते वाऽपि कुर्यात् पठनपाठने॥ २३५॥
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आदित्यचन्द्रयोर्ग्राह-काले सत्सङ्गिभिः समैः।
परित्यज्य क्रियाः सर्वाः कर्तव्यं भजनं हरेः॥ २६४॥
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एतच्छास्त्रानुसारेण यः प्रीत्या श्रद्धया जनः।
आज्ञोपासनयोर्दार्ढ्यं प्रकुर्यात् स्वस्य जीवने॥ २८८॥
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सत्सङ्गे दिव्यसम्बन्धाद् ब्रह्मणः परब्रह्मणः।
सर्वेषां जायतां दार्ढ्यं निर्दोषदिव्यभावयोः॥ ३०७॥
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4. णिच प्रत्यय 

अतः समाश्रयेन्नित्यं प्रत्यक्षमक्षरं गुरुम्।
सर्वसिद्धिकरं दिव्यं परमात्माऽनुभावकम्॥ २५॥
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वार्धक्येन च रोगाद्यैरन्याऽऽपद्धेतुना तथा।
पूजार्थम् असमर्थश्चेत् तदाऽन्यैः कारयेत् स ताम्॥ ७७॥
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यज्ञपुरुषदासेन स्थापितो मूर्तिम त्तया।
गुरुचरित्रग्रन्थेषु पुनरयं दृढायितः॥ ११२॥
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स्वसंप्रदायग्रन्थानां यथाशक्ति यथारुचि।
संस्कृते प्राकृते वाऽपि कुर्यात् पठनपाठने॥ २३५॥
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सम्प्रदायस्य शास्त्राणां पठनं पाठनं तदा।
यथारुचि यथाशक्ति कुर्याद् नियमपूर्वकम्॥ २४३॥

5. क्त्वा  प्रत्यय

स्वामिनारायणेऽनन्य-दृढपरमभक्तये।
गृहीत्वाऽऽश्रयदीक्षाया मन्त्रं सत्सङ्गमाप्नुयात्॥ १८॥
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मत्वाऽपि यज्ञशेषं च वाऽपि देवनिवेदितम्।
मांसं कदापि भक्ष्यं न सत्सङ्गमाश्रितैर्जनैः॥ ३७॥
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सत्सङ्गिभिः प्रबोद्धव्यं पूर्वं सूर्योदयात् सदा।
ततः स्नानादिकं कृत्वा धर्तव्यं शुद्धवस्त्रकम्॥ ५१॥
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पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा दिशि कृत्वा मुखं ततः।
शुद्धाऽऽसनोपविष्टः सन् नित्यपूजां समाचरेत्॥ ५२॥
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आह्वानश्लोकमुच्चार्य हरिं च गुरुमाह्वयेत्।
हस्तौ बद्ध्वा नमस्कारं कुर्याद्धि दासभावतः॥ ६३॥
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एकपादोत्थितो भूत्वा मालाम् आवर्तयेत् ततः।
तपस ऊर्ध्वहस्तः सन् कुर्वाणो मूर्तिदर्शनम्॥ ६७॥
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भक्तितः पूजयित्वैवम् अक्षरपुरुषोत्तमम्।
पुनरागममन्त्रेण प्रस्थापयेन्निजात्मनि॥ ७२॥
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सेवा हरेश्च भक्तानां कर्तव्या शुद्धभावतः।
महद्भाग्यं ममास्तीति मत्वा स्वमोक्षहेतुना॥ १२२॥
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आज्ञां भगवतो नित्यं ब्रह्मगुरोश्च पालयेत्।
ज्ञात्वा तदनुवृत्तिं च तामेवाऽनुसरेद् दृढम्॥ १४३॥
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देहत्रय- यवस्थातो ज्ञात्वा भेदं गुणत्रयात्।
स्वात्मनो ब्रह्मणैकत्वं प्रतिदिनं विभावयेत्॥ १५०॥
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मिलित्वा भोजनं कार्यं गृहस्थैः स्वगृहे मुदा।
अतिथिर्हि यथाशक्ति संभाव्य आगतो गृहम्॥ १७६॥
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गुणसामर्थ्यरुच्यादि विदित्वैव जनस्य तु।
तदुचितेषु कार्येषु योजनीयो विचार्य सः॥ २०३॥
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निद्रां च भोजनं त्यक्त्वा तदैकत्रोपविश्य च।
कर्तव्यं ग्राहमुक्त्यन्तं भगवत्कीर्तनादिकम्॥ २६५॥
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आपत्काले तु सत्येव ह्यापदो धर्ममाचरेत्।
अल्पापत्तिं महापत्तिं मत्वा धर्मं न संत्यजेत्॥ २६९॥

6. ल्यप प्रत्यय

यागादिके च कर्तव्ये सिद्धान्तं सांप्रदायिकम्।
अनुसृत्य हि कर्तव्यं हिंसारहितमेव तत्॥ ३६॥
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विचार्यैवं बलं रक्षेद् नाऽऽश्रितो निर्बलो भवेत्।
आनन्दितो भवेन्नित्यं भगवद्बलवैभवात्॥ ४८॥
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आह्वानश्लोकमुच्चार्य हरिं च गुरुमाह्वयेत्।
हस्तौ बद्ध्वा नमस्कारं कुर्याद्धि दासभावतः॥ ६३॥
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साष्टाङ्गा दण्डवत् कार्याः प्रणामाः पुरुषैस्ततः।
नारीभिस्तूपविश्यैव पञ्चाङ्गा दासभावतः॥ ६९॥
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तदनु प्रणमेद् भक्तान् आदरान्न म्रभाव तः।
एवं पूजां समाप्यैव कुर्यात् स्वव्यावहारिकम्॥ ७५॥
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यैव रसवती पक्वा मन्दिरे तां निवेदयेत्।
उच्चार्य प्रार्थनं भक्त्या ततः प्रसादितं जमेत्॥ ८३॥
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संभूय प्रत्यहं कार्या गृहसभा गृहस्थितैः।
कर्तव्यं भजनं गोष्ठिः शास्त्रपाठादि तत्र च॥ ८६॥
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मन्दिराणां हि निर्माणं तदाज्ञामनुसृत्य च।
दिव्यानां क्रियते भक्त्या सर्वकल्याणहेतुना॥ ९०॥
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निजाऽऽत्मानं ब्रह्मरूपं देहत्रयविलक्षणम्।
विभाव्योपासनं कार्यं सदैव परब्रह्मणः॥ ११६॥
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भक्तिं वा ज्ञानमालम्ब्य नैवाऽधर्मं चरेज्जनः।
अपि पर्वविशेषं वाऽऽलम्ब्य नाऽधर्ममाचरेत्॥ ११८॥
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तदाज्ञां पालयेत् सद्य आलस्यादि विहाय च।
सानन्दोत्साहमाहात्म्यं तत्प्रसादधिया सदा॥ १४४॥
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तदाज्ञां यत् परित्यज्य क्रियते स्वमनोधृतम्।
परधर्मः स विज्ञेयो विवेकिभिर्मुम ुक्षुभिः॥ १५७॥
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मिलित्वा भोजनं कार्यं गृहस्थैः स्वगृहे मुदा।
अतिथिर्हि यथाशक्ति संभाव्य आगतो गृहम्॥ १७६॥
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लौकिकं त्वविचार्यैव सहसा कर्म नाऽऽचरेत्।
फलादिकं विचार्यैव विवेकेन तद् आचरेत्॥ १९२॥
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कर्तव्यं लेखनं सम्यक् स्वस्याऽऽयस्य व्ययस्य च।
नियमाननुसृत्यैव प्रशासनकृतान् सदा ॥ १९४॥
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श्रद्धामेव तिरस्कृत्य ह्याध्यात्मिकेषु केवलम्।
पुरस्करोति यस्तर्कं तत्सङ्गमाचरेन्नहि॥ २२३॥
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नियममनुसृत्यैव सत्सङ्ग स्य तु मन ्दिरे।
वस्त्राणि परिधेयानि स्त्रीभिः पुम्भिश्च सर्वदा॥ २६२॥
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आदित्यचन्द्रयोर्ग्राह-काले सत्सङ्गिभिः समैः।
परित्यज्य क्रियाः सर्वाः कर्तव्यं भजनं हरेः॥ २६४॥
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निद्रां च भोजनं त्यक्त्वा तदैकत्रोपविश्य च।
कर्तव्यं ग्राहमुक्त्यन्तं भगवत्कीर्तनादिकम्॥ २६५॥
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जन्मनो मरणस्या ऽपि विधयः सूतकादयः।
सत्सङ्गरीतिमाश्रित्य पाल्याः श्राद्धादयस्तथा॥ २६७॥
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भूतप्रेतपिशाचादेर्भयं कदापि नाऽऽप्नुयात्।
ईदृक्शङ्काः परित्यज्य हरिभक्तः सुखं वसेत्॥ २७५॥
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सत्सङ्गरीतिमाश्रित्य गुर्वादेशाऽनुसारतः।
परिशुद्धेन भावेन सर्वैः सत्सङ्गिभिर्जनैः॥ २७२॥
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देशं कालमवस्थां च स्वशक्तिमनुसृत्य च।
आचारो व्यवहारश्च प्रायश्चित्तं विधीयताम्॥ २७३॥
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स्वाऽऽत्मब्रह्मैकतां प्राप्य स्वामिनारायणो हरिः।
सर्वदा भजनीयो हि त्यागिभिर्दिव्यभावतः॥ २८५॥
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हरेः प्रसन्नतां प्राप्य तत्कृपाभाजनो भवेत्।
जीवन्नेव स्थितिं ब्राह्मीं शास्त्रोक्तामाप्नुयात् स च॥ २८९॥
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अक्षरब्रह्मसाधर्म्यं संप्राप्य दासभावतः।
पुरुषोत्तमभक्तिर्हि मुक्तिरात्यन्तिकी मता॥ २९१॥
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संक्षिप्याऽत्र कृतं ह्येवम् आज्ञोपासनवर्णनम्।
तद्विस्तरं विजानीयात् सांप्रदायिकशास्त्रतः॥ २९२॥
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अक्षररूपतां सर्वे संप्राप्य स्वात्मनि जनाः।
प्राप्नुयुः सहजानन्दे भक्तिं हि पुरुषोत्तमे॥ ३०८॥

7. तुमुन् प्रत्यय 

नाशाय सर्वदोषाणां ब्रह्मस्थितेरवाप्तये।
कर्तुं भगवतो भक्तिम् अस्य देहस्य लम्भनम्॥ ४॥
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शुद्धोपासनभक्तिं हि पोषयितुं च रक्षितुम्
भक्तिं मन्दिरनिर्माणरूपां प्रावर्तयद्धरिः॥ ८७॥
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स्वदुर्गुणान् अपाकर्तुं संप्राप्तुं सद्गुणांस्तथा।
सत्सङ्गाऽऽश्रयणं कार्यं स्वस्य परममुक्तये॥ १२६॥
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प्रसन्नतां समावाप्तुं स्वामिनारायणप्रभोः।
गुणातीतगुरूणां च सत्सङ्गमाश्रयेत् सदा॥ १२७॥
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अन्तर्दृष्टिश्च कर्तव्या प्रत्यहं स्थिरचेतसा।
किं कर्तुमागतोऽस्मीह किं कुर्वेऽहमिहेति च॥ १४५॥
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प्रदातुं कर्मकारिभ्यः प्रतिज्ञातं धनादिकम्।
यथावाचं प्रदेयं तद् नोनं देयं कदाचन॥ १९९॥
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स्वामिनारायणे भक्तिं परां दृढयितुं हृदि।
गुरुहरेः समादेशाच्चातुर्मास्ये व्रतं चरेत्॥ २४०॥
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इत्येवमादि रूपेण श्रद्धया प्रीतिपूर्वकम्।
हरिप्रसन्नतां प्राप्तुं विशेषां भक्तिमाचरेत्॥ २४२॥
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सर्वैः सत्सङ्गिभिः कार्याः प्रीतिं वर्धयितुं हरौ।
उत्सवा भक्तिभावेन हर्षेणोल्लासतस्तथा॥ २४४॥
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तेषां स्थानविशेषाणां यात्रां कर्तुं य इच्छति।
तद्यात्रां स जनः कुर्याद् यथाशक्ति यथारुचि॥ २५९॥
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त्यागो न केवलं त्यागस्त्यागो भक्तिमयस्त्वयम्।
परित्यागो ह्ययं प्राप्तुम् अक्षरपुरुषोत्तमम्॥ २८६॥
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पठने चाऽसमर्थैस्तु श्रव्यं तत् प्रीतिपूर्वकम्।
आचरितुं च कर्तव्यः प्रयत्नः श्रद्धया तथा॥ २९४॥